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पहले अफसर बना। फिर अफसरी छोड़ी। अन्ना हजारे का साथ पकड़ा। समाज सेवा को चोला पहना। कतिपय घोटाला करने वालों से पंगा लिया। फिर धीरे से राजनीति में आ गया। शायद उसे नहीं पता था कि जीवन एक साइक्लिक प्रोसेस यानी चक्रीय प्रक्रम है। हम जहां से चलते हैं, फिर वहीं पहुंच जाते हैं। राजनीति में आया तो वह फिर वहीं पहुंच गया, जहां से चला था। पर इसका भान उसे नहीं हो सका। राजनीति में आते ही पार्टी बनाई। प्रचार किया, फिर छा गया। ऐसा छाया कि दिल्ली में शीला दीक्षित के तख्त को हिला दिया। दुनिया के कई देशों में रातोंरात वह सुर्खियों में छा गया। फिर क्या था, होना वही था जो मंजूरे खुदा था। वह खुद को संभाल न सका और आधी छोड़कर पूरी के लिए दौड़ पड़ा। इस पूरी की दौड़ में अब जगह-जगह तमाचे खा रहा है। पर पूरी पाने की तमन्ना इस कदर है कि बरबस बोल रहा है कि देख तमाचा हम खाते हैं, तू न घबड़ाना रे…
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