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यूपी में दंगों के पीछे कहीं सोची समझी साजिश तो नहीं

अवध की बात
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आखिर क्या बात है कि उत्तर प्रदेश बार-बार दंगों की चपेट में आ रहा है। जिस प्रदेश के लोगों ने अपना सबकुछ खोकर अमन का पैगाम दिया है, उसे प्रदेश के चुनिंदा शहरों में हो रहे दंगे क्या किसी सोची समझी साजिश का परिणाम नहीं दिखाई देते। आखिर राज्य सरकार इन दंगों पर काबू क्यों नहीं पा पाती। इन दंगों के बारे में राज्य सरकार की खुफिया इकाईयों को भनक तक नहीं लग पाती। ऐसा क्या हो गया है। अखिलेश सरकार की प्रशासनिक मशीनरी को। उत्तर प्रदेश के इतिहास में सबसे युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कार्यकाल अभी ढाई साल भी पूरा नहीं हुआ है। अगर हम कुछ प्रमुख घटनाओं पर नजर डालें तो अयोध्या, बरेली, शाहजहांपुर, मुजफ्फरनगर, गौतमबुद्धनगर, प्रतापगढ़, मुरादाबाद के बाद अब सहारनपुर में लोग साम्पद्रायिक दंगे की आग में झुलस रहे हैं। घटनाएं कब और कैसे घटीं, जरा इस पर भी नजर डालें। अयोध्या में दुर्गा पूजा की प्रतिमा विसर्जन के दौरान साम्प्रदायिक दंगा हुआ। बरेली में मंदिर में लाउडस्पीकर बजाने को लेकर दो समुदायों के बीच विवाद हुआ। मुजफ्फरनगर में बालिका से छेड़खानी की घटना को लेकर विवाद हुआ। शाहजहांपुर और प्रतापगढ़ में भी छेड़छाड़ की घटनाएं ही प्रमुख कारण रहीं। गौतमबुद्धनगर में धार्मिक स्थल के निर्माण को लेकर और मुरादाबाद में मंदिर में लाउडस्पीकर लगाने को लेकर विवाद होने की बात सामने आयी है। सहारनपुर में भी एक धार्मिक स्थल के निर्माण को लेकर साम्पद्रायिक दंगा होने का मामला सामने आया है। इन सभी घटनाओं की पृष्ठभूमि पर अवलोकन करें तो साफ है कि इन मामलों को समुदाय विशेष के लोगों से कोई खास वास्ता नहीं रहा। अगर प्रशासन निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से दोषी लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई कर देता तो शायद समुदाय के लोगों की भावना न भड़कती। प्रशासनिक अधिकारी ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं। इसके पीछे दो ही तर्क है। या तो अधिकारी जिस पद पर हैं वह उसके योग्य नहीं हैं या फिर उनके ऊपर कोई राजनैतिक दबाव है जिसके कारण कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं। सहारनपुर जहां साम्प्रदायिक दंगे की ताजा घटना हुई है, वह शहर दुनिया को कौमी एकता, अमर और चैन का संदेश देता है। इसी जिले में प्रख्यात इस्लामिक संस्था दारुल उलूम देवबंद है, जहां से समाज और देश हित में फतवे जारी हुआ करते हैं। सहारनपुर के साहित्यकारों माजिद देवबंदी, नवाज देवबंदी जैसी शख्सियतों ने कौमी एकता का तराना देश के कोने-कोने में गाया है। यही शहर आज साम्पद्रायिक दंगे के नाम पर कलंकित हो गया है। सोचिए जरा, सहारनपुर के अमनपसंद लोगों को यह कैसा लग रहा होगा। एक बात पर और भी गौर करना समीचीन होगा। उत्तर प्रदेश में जब भी समाजवादी पार्टी की सरकार होती है तो दंगे उसके केन्द्र में रहते हैं। लगता है कि समाजवादी पार्टी दंगों को ही आधर बनाकर वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करना चाह रही है। एक मुद्दे पर आरोपों को झेल रही सरकार, उससे लोगों का ध्यान हटाने के लिए दूसरा बखेड़ा खड़ा करवा देती है। कुछ ऐसी बात इन घटनाओं से समझ में आती है। मसलन, लखनऊ में हुए रेप की घटना को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार विपक्ष के आरोपों को झेल रही थी। अब सहारनपुर की घटना ने लखनऊ की घटना को पीछे छोड़ दिया। इसी तरह इससे पहले बदायूं में दो दलित बालिकाओं की रेप के बाद हत्या की घटना को लेकर सरकार विपक्ष के आरोपों को झेल रही थी। उसी दौरान मुरादाबाद दंगे की घटना घट गयी। यह तो खैर इत्तेफाक भी हो सकता है। पर इन घटनाओं ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के राजनैतिक कॅरियर पर भी सवाल खड़ा कर दिया। यह घटनाएं सबसे दुखद उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरे युवाओं के लिए है। सहज अब लोगों युवाओं की राजनीति में सफलता पर यकीन नहीं कर सकेंगे। अगर बात आएगी तो उसके लिए अखिलेश यादव उदाहरण दिए जाएंगे। दूसरी तरफ एक और बात तय लगती है कि इन घटनाओं ने यह पटकथा भी लिख दी है कि अब उत्त्तर प्रदेश के इतिहास में अखिलेश यादव शायद ही दुबारा मुख्यमंत्री बन सकें। अखिलेश यादव के लिए अभी भी कुछ समय है कि वह इन दंगों की घटनाओं के पीछे का सच जानने की कोशिश करें और सुधारात्मक कदम उठाएं तो उनके राजनैतिक कॅरियर के लिए सुखद होगा।

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